
चुनाव आयोग का गुणा गणित, जनता की फ़ज़ीहत
एक था मुहम्मद बिन तुग़लक़ जिसने सल्तनत की राजधानी दिल्ली से दौलताबाद करने का फरमान जारी किया और पूरी दिल्ली साथ ले दौलताबाद चल पड़ा दूसरी है हमारी तत्कालीन राज्य व्यवस्था जो नित नए तुगलकी फरमान जारी करती रहती है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राज्य व्यवस्था ऐसे नए-नए कदम उठाती रही है जिनसे जनता के बीच अफरा-तफरी का माहौल बनता रहा है। कभी नोटबंदी के सहारे भ्रष्टाचार आतंकवाद और काला धन ख़त्म करने के नाम पर तो कभी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के नाम पर तो कभी कोविड में लोगों को होने वाली तकलीफों को अनदेखी कर असंवेदनशील ढंग से एकाएक लगाए गए लॉक डाउन की वजह से। ऐसे ही एक नए फरमान के तहत भारत के चुनाव आयोग ने बिहार चुनाव से ठीक पहले पूरी वोटर सूची को नए सिरे से तैयार करने का आदेश जारी कर दिया यह मौजूदा वोटर लिस्ट का संशोधन नहीं बल्कि पूरी वोटर सूची को ही नए सिरे से तैयार करने का आदेश था। चुनाव आयोग के अनुसार तेजी से होने वाला शहरीकरण लोगों का लगातार प्रवास में रहना 18 साल के हो गये युवा नागरिकों को मतदाता सूची में शामिल करना मौतों की सूचना न दर्ज करवाया जाना और वोटर रोल में विदेशी/अवैध प्रवासियों के नाम होने जैसे विभिन्न कारणों से मतदाता सूचियों में त्रुटियों को दूर कर एक दुरुस्त मतदाता सूची तैयार करने के लिए गहन संशोधन आवश्यक है। गौरतलब है कि चुनाव आयोग द्वारा प्रत्येक वर्ष विशेष संक्षिप्त पुनरीक्षण का भी आयोजन करता है। यह पुनरीक्षण किसी भी निर्वाचन छेत्र में नए वयस्कों मृत्यु अथवा प्रवासन के कारण पात्र मतदाताओं की संख्या में हुए किसी भी फेर बदल के अनुसार मतदाता सूची को संशोधित करने के लिए ही किया जाता है। बिहार में ये संक्षिप्त पुनरीक्षण हाल ही में गहन पुनरीक्षण के ऐलान से ठीक पहले संपन्न हुआ था हालाँकि अब जबकि चुनाव आयोग द्वारा विशेष मतदाता गहन पुनरीक्षण की प्रक्रिया लगभग ख़त्म होने को है तब संक्षिप्त पुनरीक्षण की कवायद बेकार ही रही यदि चुनाव आयोग द्वारा गहन पुनरीक्षण किये जाने की कोई सोची-समझी योजना थी तो संक्षिप्त पुनरीक्षण आखिर क्यों किया जा रहा था? ऐसा प्रतीत होता है कि गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का फैसला खास राजनैतिक मकसद को पूरा करने के उद्देश्य से आनन-फानन में लिए गया है।
प्रक्रिया और प्रश्नचिन्ह
अब जबकि विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की प्रक्रिया अपने अंतिम दौर में है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी इस पर रोक लगाने से इंकार कर दिया गया है तो तय है कि चुनाव आयोग द्वारा बिहार का चुनाव नयी मतदाता सूची के अनुसार ही करवाया जायेंगे। आइये इस पूरी प्रक्रिया और इस पर उठते प्रश्नचिन्हों और उनके पीछे के कारणों पर एक नज़र डालते हैं।
भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) द्वारा 24 जून, 2025 को बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा की गयी। इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए मात्र दो महीने की अवधि तय की गयी थी। प्रारंभिक कार्यक्रम के अनुसार मतदाता सूची का मसौदा 1 अगस्त 2025 को प्रकाशित किया गया। बूथ स्तर अधिकारीयों द्वारा घर-घर जाकर मतदाताओं को गणना प्रपत्र दिया जाना था और मतदाताओं द्वारा गणना पत्र भरकर साथ में सत्यापित करने हेतु प्रमाण पत्र संलग्न करके जमा करना था।
निम्नलिखित 11 दस्तावेज़ों को चुनाव आयोग द्वारा मान्य ठहराया गया है:
- किसी भी केंद्र या राज्य सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के नियमित कर्मचारी पेंशनभोगी को जारी किया गया पहचान पत्र पेंशन भुगतान आदेश।
- 1 जुलाई, 1987 से पहले भारत में सरकार/स्थानीय प्राधिकरण/बैंक/डाकघर/एलआईसी/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा जारी किया गया पहचान पत्र/प्रमाणपत्र/दस्तावेज।
- किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी जन्म प्रमाण पत्र।
- पासपोर्ट।
- मान्यता प्राप्त बोर्ड या विश्वविद्यालयों द्वारा जारी मैट्रिकुलेशन/शैक्षणिक प्रमाण पत्र।
- सक्षम राज्य प्राधिकारी द्वारा जारी स्थायी निवास प्रमाण पत्र।
- वन अधिकार प्रमाण पत्र।
- सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी ओबीसी,एससी,एसटी या कोई भी जाति प्रमाण पत्र।
- राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (जहाँ मौजूद हो)।
- राज्य/स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा तैयार किया गया परिवार रजिस्टर।
- सरकार द्वारा भूमि/मकान आवंटन प्रमाण पत्र।
- एपिक कार्ड: वोटर पहचान पत्र मौजूदा रोल पर आधारित है और नए संशोधन में प्रविष्टियों के लिए इसका उपयोग नहीं किया जा सकता है जो कि एक नई प्रक्रिया होनी चाहिए।
- आधार कार्ड: चूंकि आधार कार्ड नागरिकता स्थापित नहीं करता केवल पहचान स्थापित करता है और इसलिए इसे एकमात्र वैध प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता है।
- राशन कार्ड: नकली कार्डों के प्रचलन के कारण राशन कार्डों को इससे बाहर रखा गया है।
चुनाव आयोग के बयानों के अनुसार इन दस्तावेज़ों के माध्यम से मतदाताओं की नागरिकता और निवास सत्यापित की जाएगी। दस्तावेज़ों की यह सूची अपने आप में कई सवाल उठाने पर विवश करती है। जबकि जाति प्रमाण पत्र जन्म प्रमाण पत्र को आधार कार्ड के ज़रिये प्राप्त किया जा सकता है तब आधार कार्ड को अमान्य करार देने के पीछे का तर्क समझ से परे है। दूसरा यदि असम के अलावा भारत के किसी भी अन्य राज्य में नागरिक रजिस्टर मौजूद नहीं है ऐसे में मान्य दस्तावेज़ों की सूची में इसका होना चुनाव आयोग की मूर्खता या कहिए धूर्तता नहीं तो और क्या है साथ ही मेट्रिकुलेशन/शैक्षणिक प्रमाण पत्र नागरिकता का प्रमाण कैसे है ये चुनाव आयोग ही बता सकता है।
10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में चुनाव आयोग के प्रस्तुतीकरण के अनुसार इन 11 प्रमाण पत्रों की सूची पूर्ण सूची नहीं बल्कि एक सुझाव सूची है यह जनता के बीच भ्रम की स्थिति पैदा करने वाला तर्क ही है और किसी भी तरह आम मतदाता की परेशानियों को हल नहीं करता है। हालाँकि 28 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई में आधार कार्ड और एपिक कार्ड को सत्यापन के लिए शामिल करने का निर्देश दिया गया लेकिन ज़मीनी स्तर पर इस निर्देश का पालन नहीं हुआ। मतदाता सूची में मतदाताओं की संख्या में 4 फीसदी की वृद्धि या 2 फीसदी की गिरावट की स्थिति में पुनः सत्यापन का नियम इस विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के बारे में दिए गए हाल के निर्देशों या घोषणाओं में स्पष्ट रूप से नहीं दिखता है।
प्रवासन के कारण वोटर लिस्ट से नाम काटने का तर्क बिहार जैसे राज्य के लिए निहायत ही मूर्खता पूर्ण है क्या चुनाव आयोग इस बात के लिए आश्वस्त है कि बिहार से भारी संख्या में प्रवास करने वाले मजदूरों का नए स्थानों पर मतदाता सूची में नाम है जो इस एसआईआर की प्रक्रिया में बिहार से प्रवासित पाए गए या फॉर्म जमा करने में असफल हुए उनके मताधिकार का क्या होगा? सभी नागरिकों को 25 जुलाई तक अपने-अपने चुनाव आयोग द्वारा मान्य प्रमाण पत्र जमा करना था। बड़ा प्रश्न ये है की 2003 में किये गए गहन पुनरीक्षण को पूरा करने में दो वर्षों का समय लगा था वही इस बार जबकि नवंबर में बिहार में चुनाव होने हैं तो ठीक चुनावो से पहले यह प्रक्रिया दो महीने में कैसे पूरी की जा सकती है? आखिर इस जल्दबाज़ी का उद्देश्य क्या है?
जिनके नाम 1 अगस्त के मसौदे में नहीं है वे दावे और आपत्तियों को 1 अगस्त से 1 सितंबर तक दर्ज करा सकते हैं और अंतिम सूची में अपना नाम शामिल करा सकते हैं। 25 जुलाई को चुनाव आयोग द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 7.89 करोड़ मतदाता बिहार की मौजूदा मतदाता सूची में मौजूद हैं जिनसे घर-घर जाकर 77,895 बूथ स्तर अधिकारी न सिर्फ मतदाताओं को फार्म बाँटेंगे बल्कि फॉर्म भरने और प्रमाण पत्रों के सत्यापन भी करेंगे। प्रत्येक बूथ स्तर अधिकारी के ज़िम्मे औसतन एक हज़ार मतदाता आते हैं। जाहिर है बिहार जैसे राज्य में इस प्रक्रिया के लिए दो महीने की अवधि बेहद कम है। इस सिलसिले में ऐसी तमाम खबरें सामने आ रहीं हैं जिनके अनुसार बूथ अधिकारियों को बिना किसी सत्यापन और दस्तावेज़ के फॉर्म जमा करने के निर्देश दिए गए हैं। अब प्रश्न यह उठता है की अगर ऐसी गलत प्रक्रिया द्वारा नयी मतदाता सूची तैयार की जानी थी तो फिर इतने बड़े कवायद का औचित्य क्या है? ज़ाहिर है निगाहें कहीं और हैं और निशाना कहीं और।
लाभ किसको हानि किसकी
भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) ने बिहार में वर्तमान में चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली रिट याचिका के जवाब में 21 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट में एक जवाबी हलफनामा दायर किया। इस हलफनामे के अनुसार 2024-2025 में चुनाव आयोग को मतदाता सूचियों में खामियों से संबंधित प्राप्त शिकायतों के संग्रह में ज़्यादातर दिल्ली, पश्चिम बंगाल, झारखंड और आंध्र प्रदेश की भाजपा इकाइयों द्वारा दर्ज की गई शिकायतें शामिल हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी(कांग्रेस,राकापा,सपा और शिवसेना) से एक-एक शिकायत प्राप्त हुई है। इनमें से किसी भी शिकायत में बिहार की मतदाता सूची का उल्लेख नहीं है न ही किसी शिकायत में बांग्लादेश म्यांमार नेपाल आदि देशों से आए अवैध प्रवासियों के किसी राज्य की मतदाता सूची में शामिल होने का आरोप लगाया गया है। ये शिकायतें जो चुनाव आयोग के प्रति हलफनामे का लगभग 80 फीसदी हिस्सा हैं बिहार में चल रही एसआईआर प्रक्रिया या देश भर के मतदाताओं की राष्ट्रव्यापी नागरिकता परीक्षा जिसके लिए हलफनामे में जोरदार तर्क दिया गया है के लिए कोई औचित्य प्रदान नहीं करती हैं।
एसआईआर प्रक्रिया नागरिकता प्रमाणित करने का दायित्व उन सभी मौजूदा मतदाताओं पर डाल देती है जिनके नाम चुनाव आयोग द्वारा उचित प्रक्रिया के माध्यम से पंजीकृत किए गए थे। साक्ष्यों से समर्थित विशिष्ट शिकायतों के आधार पर गैर नागरिकों को मतदाता सूची से हटाने के लिए एक अन्य उचित प्रक्रिया भी मौजूद है। क्या अवैध प्रवासियों के संबंध में समावेशन त्रुटियों की भारी संख्या के कारण ये प्रक्रियाएँ अप्रभावी हो गई हैं? यदि ऐसा हैए तो चुनाव आयोग के हलफनामे में बिहार और अन्य सभी राज्यों की मतदाता सूची में विदेशी नागरिकों या अवैध प्रवासियों को शामिल करने के संबंध में प्राप्त शिकायतों की संख्या का सटीक आँकड़ा प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। ऐसे साक्ष्यों के अभाव में चुनाव आयोग का यह तर्क कि संक्षिप्त संशोधनों के माध्यम से मतदाता सूची में नाम शामिल करना केवल व्यर्थ है और केवल एसआईआर जैसे गहन संशोधनों के माध्यम से जोड़े गए या सत्यापित किए गए नामों की ही अधिक प्रामाणिकता होती है सही नहीं है। चुनाव आयोग द्वारा रिप्रजेंटेशन ऑफ़ पीपल्स एक्ट के नागरिकता संबधी नियमों का हवाला देना और दस्तावेज़ों की सूची को लेकर खुलकर कहा गया है कि मतदाताओं को नागरिकता साबित करनी होगी ऐसे में साफ़ है बिहार एसआईआर की इस पूरी प्रक्रिया में प्रत्येक नागरिक को न सिर्फ खुद को मतदाता साबित करना है बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से ये नागरिकता साबित करने की जद्दोजेहद भी है ज़ाहिर है जिसका भी नाम नयी मतदाता सूची से बाहर होगा उसकी नागरिकता भी संदेह के घेरे में होगी और नागरिकता साबित करने का दयित्व सिर्फ नागरिक पर है न कि राज्य पर जो NRC की प्रक्रिया का ही अनुकरण है और चुनाव आयोग एक तरह से लोगो की नागरिकता तय करने वाली एजेंसी बन चुका है।
चुनाव आयोग की संदिग्ध भूमिका
2024 के लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बीच सिर्फ़ छह महीनों में भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस की सीट (नागपुर दक्षिण पश्चिम) में 29,219 नए मतदाता जुड़े। यह 8.25 प्रतिशत की वृद्धि है। फडणवीस की विधानसभा सीट के 378 बूथों पर हुए मतदान से पता चलता है कि 263 बूथों पर मतदाताओं की संख्या में 4 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि देखी गई, 26 बूथों पर 20 प्रतिशत से अधिक और चार बूथों पर 40 प्रतिशत से अधिक। भाजपा के अध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले की सीट कामठी में 33,295 मतदाता जुड़े - सात प्रतिशत की वृद्धि । डोम्बिवली में मतदाताओं की संख्या में सबसे अधिक 13.8 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। महाराष्ट्र के 288 विधानसभा क्षेत्रों में से 19 में आठ प्रतिशत से अधिक की वृद्धि देखी गई। जो चुनाव आयोग के अपने दिशानिर्देशों के तहत अनिवार्य सत्यापन जाँच के लिए तय 4 प्रतिशत की सीमा से दोगुनी से भी ज़्यादा है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसी कोई जांच नहीं की गई है ऐसा दावा उन क्षेत्रों के स्थानीय मतदान कर्मचारियों ने किया है जहां सबसे अधिक संख्या में मतदाता बढ़े हैं। कई बूथ स्तर अधिकारियों द्वारा मीडिया को दिए गए बयानों से इस बात की पुष्टि होती है कि इन नए मतदाताओं के फॉर्म उनके द्वारा नहीं बल्कि जिला कलेक्टरेट से प्राप्त हुए जिन्हें सत्यापन के लिए उन्हें सौंपा गया था जिनमें से हम केवल कुछ का ही सत्यापन कर पाए। जब हम उनके पते पर गए तो उनके पड़ोसियों ने हमें बताया कि ये लोग यहाँ नहीं रहते। हमने अपने पर्यवेक्षक को इस बारे में सूचित किया ताकि उन्हें इसकी जानकारी हो। भाजपा ने ऐसी 19 में से 12 निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की। दिल्ली विधानसभा चुनावो से पहले भी मतदाता सूची से वैध मतदाताओं के हटाए जाने का विवाद उभरकर सामने आया था और चुनाव आयोग की तमाम सफाइयों के बावजूद मतदान के दिन ऐसे बहुत से मामले सामने आये जिसमे लोगो को अपने मतदान केंद्र पर जाने के बाद पता चला की उनका नाम मतदाता सूची से कट चूका है।
वही दूसरी तरफ स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) द्वारा हाल ही में किए गए सर्वेक्षण में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) में बिहार के प्रवासी श्रमिकों के सामने आने वाली कठिनाइयों पर प्रकाश डाला गया है। 338 कामगारों के बीच किए गए इस सर्वेक्षण में पाया गया कि 75 प्रतिशत कामगारों की मासिक आय 17,000 रुपये से कम है और 68 प्रतिशत के पास आवश्यक दस्तावेजों की सही जानकारी नहीं थी। बिहार से बाहर के 75 प्रतिशत उत्तरदाताओं को गणना फॉर्म जमा करने के ऑनलाइन पोर्टल की जानकारी नहीं थी और 1 प्रतिशत से भी कम लोगों ने इसे ऑनलाइन जमा किया था। जिन लोगों ने बताया कि बिहार में उनके घर कोई अधिकारी आया था उनमें से केवल 29 प्रतिशत ने बताया कि फॉर्म के साथ एक एसआईआर दस्तावेज भी लिया गया था। इसके अलावा 35 प्रतिशत श्रमिकों के पास 11 अनिवार्य एसआईआर दस्तावेजों में से कोई भी नहीं था। हालाँकि 96 प्रतिशत के पास आधार कार्ड और 84 प्रतिशत के पास मतदाता पहचान पत्र थे।
एक और मामले में एक महिला जिसे उसके पति ने मृत घोषित कर दिया था और जिसका मृत्यु प्रमाण पत्र भी बिहार सरकार से प्राप्त हो चुका था जीवित पाई गई। सुप्रीम कोर्ट ने 28 जुलाई को बिहार में विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर सुनवाई के दौरान पीड़ित याचिकाकर्ताओं के वकीलों से कहा कि यदि ऐसे 15 लोगों को सामने लाएँ जिन्हें चुनाव आयोग ने मृत घोषित कर दिया है लेकिन वे वास्तव में जीवित हैं तो चुनाव आयोग पूरी पुनरीक्षण प्रक्रिया को निरस्त कर देगा। केवल चुनाव आयोग को ही पता है कि वो 65 लाख लोग कौन थे जिनके नाम नयी मतदाता सूची से काट दिए गए हैं।
इन मामलों को देखते हुए चुनाव आयोग के ऊपर सवाल उठना जायज़ है।
अंत में
2003 में हुए पुनरीक्षण का मुख्य कारण वोटर लिस्ट का कम्प्युटरीकरण करना था। जो तर्क इस बार दिए गए हैं क्या वो सालाना होने वाले संक्षिप्त पुनरीक्षण और उसके बाद इसी साल प्रकाशित नई मतदाता सूची में ठीक कर लेना संभव नहीं था यदि मतदाता सूची का सघन पुनरीक्षण आवश्यक ही था तो क्या इस प्रक्रिया के लिए जनता को अधिक समय नहीं दिया जाना चाहिए था और चुनावों के ठीक पहले करने का कारण भी समझ से परे है। अगर ऐसी कोई योजना पहले से थी तो उसके कार्यान्वन के लिए चुनावों का इंतज़ार क्यों किया गया?
भाजपा सरकार के आने के बाद अचानक आनन.फानन में फैसले ले लेना इस सरकार की आदत सी बन गयी है। ऐसे फैसलों के चलते जनता को बार-बार आपात स्थिति से जूझना पड़ता है। जनता की हालत जाल में फसी मछलियों जैसा हो गया है। हर बार राज्य व्यवस्था कोई नया जाल फेंकती है और जनता अपनी जान बचाने ले लिए हाथ पैर मारती कभी लाइनों में लगती है कभी इसके लिये कागज़ों के ढेर जोड़ने लगती है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि मौजूदा शासन में आम नागरिकों को हमेशा सड़कों पर क्यों खड़ा किया जाता है? अलग-थलग पड़ने से बचने के लिए लोगों को हमेशा अफरा-तफरी में क्यों पड़ना पड़ रहा है हर नागरिक पर अपने नोट बदलवाने अपनी नागरिकता साबित करने और यह साबित करने की ज़िम्मेदारी क्यों होती है कि वह मतदाता है?
बिहार जैसे राज्य जिसमे हर साल बाढ़ के चलते लोगों का सब कुछ बह जाता हो लाखों लोग अस्थायी किस्म के रोज़गारों के लिए भारत के हर राज्य हर जिले में प्रवास में जाते हों जहाँ साक्षरता का स्तर देश में निम्नतम स्तर पर हो ऐसे राज्य में दो महीने के भीतर पूरी वोटर लिस्ट को नए सिरे तैयार कर भी लिया जाये तो इसमें कितने लोगों से मतदान का अधिकार छीन लिया जायेगा कोई नहीं बता सकता।
महाराष्ट्र की घटनाओं को देखते हुए शक और सवाल सिर्फ वैध मतदाताओं के नाम क जाने का नहीं बल्कि अवैध मतदाताओं के जोड़े जाने का भी है। जिस प्रकार पिछले कुछ वर्षो में चुनाव आयोग का हर कदम भाजपा के पक्ष में जाता दिखा है चाहे वो भाजपा सांसदों द्वारा दिए गए धार्मिक भड़काऊ बयानों के मामले में संज्ञान लेने व कार्रवाई करने में निष्क्रियता हो, चाहे धर्म और सेना के शहीदों के नाम पर सीधे वोट मांगने का हो, चाहे 2019 लोक सभा चुनाव के बीच में गुमनाम मालिकों द्वारा चलाया गया नमो टीवी की घटना हो या प्रधानमंत्री मोदी का चुनावों के बीच मंदिर-दर्शन और टीवी पर सीधा प्रसारण हो, ऐसे तमाम मामलों को देखते हुए चुनाव आयोग के ऊपर पक्षपात का आरोप लगना और उस पर संदेह होना जायज है। लोकतंत्र का खोखला कवच अब खोलकर राज्य सत्ता की सच्चाई जनता के सामने आ रही है और राज्य सत्ता के हिस्सेदार अब इसकी साख बचाने में लगे हैं।
चुनाव आयोग द्वारा 2 अगस्त को जारी प्रेस रिलीज़ के अनुसार बिहार के सभी 38 जिला निर्वाचन अधिकारियों द्वारा 1 अगस्त 2025 को सभी 243 विधानसभा क्षेत्रों के 90,712 मतदान केंद्रों की मसौदा मतदाता सूची सभी राजनीतिक दलों के साथ साझा कर दी गई है। सभी पात्र मतदाताओं को नए पहचान पत्र दिए जाएँगे। इसलिए सभी मतदाताओं को 1 सितंबर 2025 तक अपने बीएलओ को अपनी नई तस्वीरें उपलब्ध करानी होंगी। ईसीआई के अनुसार 22 लाख मतदाताओं के नाम मृत्यु के कारन कारण हटाए गए हैं 35 लाख मतदाताओं के नाम स्थायी रूप से प्रवासित/अनुपस्थित होने के कारण काटे गए हैं तथा 7 लाख मतदाताओं के नाम काटने का कारण दूसरी जगहों पर मतदाता सूची में मौजूद होना बताया हैं। चुनाव आयोग द्वारा अभी तक उन विदेशी गैरकानूनी मतदाताओं की संख्या के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी है जिसे भाजपा नेताओं द्वारा इस पूरी कसरत का एक प्रमुख कारण बताया गया था। (लिखे जाने तक पूरे मामले की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है)
- https://www.newslaundry.com/2025/06/23/in-6-months-fadnavis-seat-added-29219-voters-poll-staff-claim-lapses
- https://www.newslaundry.com/2025/07/03/a-flurry-of-new-voters-the-curious-case-of-kamthi-where-the-maha-bjp-chief-won
- https://www.deccanherald.com/india/most-migrants-unaware-of-sir-portal-finds-survey-3651248

मज़दूर